लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
अब दबे-ढंके कुछ भी नहीं...
सन् उन्नीस सौ उनतीस में वर्जिनिया वुल्फ़ ने एक बेहद महत्त्वपूर्ण किताब लिखी-'ए रूम ऑफ वनस ओन।' औरत का पिता के घर, पति के घर, भाई के घर, मामा के घर, बेटे वगैरह के घरों में निवास होता है। औरत का अपना कोई घर नहीं होता। उन लोगों को दूसरे के घरों में रहना पड़ता है। औरत के पास निजी रुपया-पैसा/दौलत नहीं होती; अपनी मर्जी मुताबिक जीवन-यापन नहीं होता; उन लोगों की अपनी कोई प्राइवेसी नहीं होती। औरत का नितान्त अपना, बिलकुल अकेला, जहाँ कोई उसे तंग करने वाला न हो, जहाँ कोई अपनी नाक न गलाये, औरत को ऐसे किसी घर की सख ज़रूरत है-यह बात वर्जिनिया वुल्फ़ बहुत पहले ही बता गयी हैं। न हो, आज पश्चिम में लड़कियों को अकेले रहने का मौका और परिवेश मिल गया है। आजकल औरतें पहले से कहीं ज़्यादा आत्मनिर्भर हो चुकी हैं, समाज से संस्कारों का भत काफ़ी पहले गायब हो चका है। लेकिन परब की हालत काफ़ी करुण है। परब की औरतों को अभी भी पितृतन्त्र, धर्म और सात सौ किस्म के संस्कारों की चक्की में पीस-पीस कर ख़त्म किया जाता है। समाज-सुधारकों ने औरतों की शिक्षा, यहाँ तक कि आत्मनिर्भरता का भी इन्तज़ाम तो कर दिया है, लेकिन इस वजह से स्थितियों में क्या कोई परिवर्तन आया है? कितनी औरतें आज, अपने घर में या अपने मकान में पूरी-पूरी तरह, अपने ढंग से अकेले और भरपूर एकाकी जीवन जी रही हैं? कितनी औरतों को यह आज़ादी या स्वेच्छाचार की सुविधा है कि वे अपनी कमाई से अपना घर, मकान, अपनी गृहस्थी बनाएँ, जो खुद उड़ती फिरें खुद सैर-तफरीह करें; अपनी मर्जी का काम करें? कोई-कोई औरतें, जो ऐसे जीवन गुज़ारने को आगे बढ़ती हैं तो झुण्ड के झुण्ड पुरुष दिन-रात उसे सलाह-मशविरा देने को जुट जाते हैं। इसलिए अन्त तक औरतें अकेली रहने का सच्चा सुख भोगने से वंचित रह जाती हैं।
एक युग से भी अधिक समय से मैं अकेली रह रही हूँ। मेरा यूँ अकेले रहना, किसी घटना यां कई घटनाओं का नतीजा नहीं है। अकेले रहना मेरा सपना था। मैंने वह सपना सच कर लिया। मुझ पर कम मुसीबतें नहीं आयीं। मैं अकेली रहूँगी, आज से किसी पुरुष के साथ नहीं रहूँगी, यह फैसला लेने के बाद किराये पर घर लेने के लिए शहर भर में घूमती फिरी। लेकिन घर क्या मिल पाया? कभी मकान-मालिकों ने मुझे दुरदुरा कर खदेड़ दिया। उन लोगों ने पहले तो आतंकित निगाहों से मुझे सिर से पाँव तक घूर कर देखा, एक अकेली जनानी घर किराये पर लेने आयी है? मैं डॉक्टर हूँ। शहर के बड़े अस्पताल में नौकरी करती हूँ। मुझमें किराया चुकाने की पूरी-पूरी क्षमता है-यह सब जानने के बाद भी कोई भी बन्दा मुझे अपना घर किराये पर देने को राजी नहीं हुआ। वजह यह थी कि मेरे साथ कोई पुरुष अभिभावक नहीं था। न पिता, न भाई, न पति। काफ़ी घूमने-भटकने और मेहनत-मशक्कत के बाद, आखिरकार मुझे एक घर मिल गया। पुरुष के बिना ही मुझे रहने दिया जाये, यह विनती करते हुए मुझे मकान मालिक के सामने हाथ-पाँव जोड़ने पड़े। आखिरकार मकान मालिक राज़ी हो गया। लेकिन उसने कहा-'ठीक है, पुरुष नहीं है तो भी चलेगा। लेकिन, अकेले रहना नहीं चलेगा, किसी-न-किसी के साथ रहना होगा।'
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं